श्री हनुमान चालीसा (भावार्थ एवं गूढार्थ )......2

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श्री हनुमान चालीसा (भावार्थ एवं गूढार्थ )......2

॥ श्री हनुमते नम: ।।

    चौपाई :-
                जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।
             जय कपीस तिंहुँ लोक उजागर॥1॥

अर्थ :-
श्री हनुमानजी, आपकी जय हो, आपका ज्ञान और गुण अथाह है।
हे कपीश्वर, आपकी जय हो, तीनों लोकों ( स्वर्ग-लोक, भू-लोक, और पाताल-लोक ) में आपकी कीर्ति है।

गूढार्थ :-
श्री हनुमानजी के गुण अपार है, भगवान और उनके भक्तों के गुणों का वर्णन कोई मनुष्य कैसे कर सकता है।

जो महापुरुष हो गये हैं, उन्हे गुणों की भूख रहती थी, उन्हे ऐसा लगता था कि जब भगवान के पास जाऊँगा तब सभी अच्छे गहनों को (गुणों को) धारण कर जाऊँगा।

मुझे देखकर भगवान कहेंगे कि, ‘शाबाश, मेरा पुत्र कमाकर आया है।

गुणों की भूख लगना यह विमल भूख है, इसलिए मलिन भूख को निकालकर गुणों कि भूख रखनी चाहिए, इसमें वृत्ति तो रहेगी और कष्ट नहीं रहेंगे।

जैसे गुणों की भूख होती है वैसे ही आत्मीयता की भूख लगती है।
गुण तो बहुत इकठ्ठे किए हैं परन्तु अभी तक भगवान के साथ आत्मीयता नहीं साधी है।

पहले गुणों की भूख लगती है और फिर भगवान के साथ आत्मीयता साधने की विमल भूख लगती है।

प्रभु के साथ आत्मीयता की भूख लगना यह बडी से बडी बात है।

हनुमानजी के जीवन पर यदि दृष्टिपात करेंगे तो उनको गुणों की भूख थी तथा भगवान के साथ आत्मीयता की भूख भी थी, इसीलिए तुलसीदासजी लिखते हैं:- ‘जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।’

इस विषय में जो कुछ भी लिखा जाय, वह बहुत ही थोडा है, यहाँ संक्षेप मे हनुमानजी के चरित्र द्वारा गुणों का दर्शन कराया जा रहा है।

हनुमानजी पहली बार जब श्रीराम और लक्ष्मण से पंपा सरोवर पर मिले है, उस प्रसंग को देखने पर मालूम होता है कि हनुमान जी में विनय, विद्वत्ता, चतुरता, दीनता, प्रेम और श्रद्धा आदि विलक्षण गुण विद्यमान है।

अपने मन्त्रियों के साथ ऋष्यमूक पर्वत पर बैठे हुए सुुग्रीव की दृष्टि पम्पा सरोवर की ओर जाती है तो वे देखते है कि हाथों मे धनुषबाण लिए हुए बडे सुन्दर, विशालबाहु, महापराक्रमी दो वीर पुरुष इसी ओर आ रहे है।

उन्हे देखते ही सुग्रीव भयभीत होकर श्री हनुमानजी से कहते है कि:- 'हनुमान, तुम जाकर इनकी परीक्षा तो करो, यदि वे बाली के भेजे हुए हो तो मुझे संकेत से समझा देना, जिससे मैं इस पर्वत को छोडकर तुरंत भाग जाऊँ।'

सुग्रीव की आज्ञा पाकर हनुमानजी ब्रम्हचारी का रुप धारण कर वहाँ जाते है और श्रीरामचंद्रजी को प्रणाम करके उनसे प्रश्न करते है।

रामचरित मानस मे तुलसीदासजी ने उसका बडा सुन्दर वर्णन लिखा है:-

को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा, छत्री रुप फिरहु बन बीरा।

कठीन भुमि कोमल पद गामी, कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी।

की तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ, नर नारायण की तुम्ह दोऊ।

श्रीरामचंद्रजी हनुमानजी की विद्वत्ता की सराहना करते हुए लक्ष्मणजी से कहते है कि:- 'लक्ष्मण, देखो यह व्यक्ति ब्रम्हचारी के वेष में कैसा सुन्दर भाषण करता है, अवश्य ही इसने संपूर्ण शास्त्र बहुत प्रकार से पढा है।'

इसने इतनी बाते कही किंतु इसके बोलने मे कहीं कोई भी अशुद्धि नहीं आयी।'

वाल्मीकि रामायण में तो श्रीराम ने यहाँ तक कहा है कि 'इसने अवश्य ही सब वेदों का अभ्यास किया है, नहीं तो इस प्रकार का भाषण कैसे कर सकता है।'

इसके सिवा और भी बहुत प्रकार से हनुमानजी के वचनों की सराहना करते हुए कहते हैं कि:- 'यह वेदों मे सतत डुबकी मारने वाला, व्याकरण का प्रगाढ ज्ञान रखनेवाला तथा व्यवहार एवं नीति शास्त्र का पूर्ण जानकार, प्रभावशाली दलीलों के साथ स्पष्ट और स्वच्छ भाषण करनेवाला, यह अहंकार शुण्य व्यक्ति
कितना विद्वान होगा, कितना अभ्यास होगा इसका।'

मर्यादा पुरुषेात्तम राम हनुमानजी को विद्वान होने का प्रमाणपत्र प्रदान कर रहे है।

भगवान श्रीराम लक्ष्मणजी से कहते है कि:- 'जिस राजा के पास ऐसे बुध्दिमान बुध्दिमान दूत हों, उसके समस्त कार्य दूत की बातचीत से ही सिद्ध हो जाया करतें हैं।'

हनुमानजी ‘बुद्धिमतां वरिष्ठम्’ है...

जब हम हनुमानजी की उपासना करते है, उनकी पूजा करते है तो स्थूल पूजा की परिणति गुण पूजा में होनी चाहिए।

हनुमानजी कैसे है तो तुलसीदासजी लिखते है:- ‘‘जय हनुमान ज्ञान गुणसागर’’ हनुमानजी तो ज्ञान और गुणों के सागर है।

जगत मे गुणों का मुल्य केवल गुणी ही कर सकता है, हनुमान जी के पास सभी गुण है, भगवान के जैसा गुणी ही गुणों की कद्र कर सकता है।

हमारे गुणों की कद्र भगवान कर सकते है, परन्तु हमारे नैसर्गिक गुण कौन से है?

शास्त्रकार कहते हैं कि कर्म हमारे नैसर्गिक गुण है, गुणों की सुगंध यांनी कमों र्की सुगंध।

सत्कर्म हमारे गुण है, सत्कर्म का फल आपको निश्चित मिलेगा इसका विश्वास रखे।

कुछ लोग कहते है, ‘हमको अपने कर्मो का फल नही मिलता’, परन्तु ऐसा कहना गलत है।

मनुष्य की तुरन्त फल प्राप्ति की चाह रहती है।

बैंक मे तुमको तुम्हारे खाते मे रखे हुए पैसे निकालने के लिए टोकन लेना पडता है।
एक ही खिडकी रहती है तब पैसे निकालने वालों की भीड होगी तो पंक्ति मे खडा रहना पडता है।

‘पक्तिमे खडे रहो’ अर्थात प्रतीक्षा करो।

पंक्तिमे खडा रहकर फल का चिन्तन करने में एक भिन्न ही मजा है।

आज टिकट सुरक्षित करके आठ दिन के बाद नाटक देखने जाने मे भी एक मजा है, यानि प्रतीक्षा करने मे मजा है।

‘जय कपिस तिंहुँ लोक उजागर’ अर्थात् हनुमानजी त्रैलोक्य में प्रसिद्ध हैं, सबको अच्छे लगने वाले तथा यश से शोभायमान हैं।

हनुमानजी की भक्ति से भगवान प्रसन्न हुए तथा उनकी कीर्ति तीनों लोकों में व्याप्त हैं।
इसीलिए तुलसीदासजी लिखते हैं ‘जय कपिस तिंहुँ लोक उजागर।’

हमें यदि भगवान के प्रिय बनना है तो हमें भक्ति की ओर मुडना चाहिए तथा ईश प्रेरित कर्म करने चाहिए।

कर्म दो प्रकार के होते है, एक वासना प्रेरित और दुसरे वासुदेव प्रेरित।

वासना प्रेरित कर्मों का प्रारब्ध बनता है और ईश प्रेरित कर्मों से जीवन विकास होता है।

ईश प्रेरणा होने के लिये भगवान का चिन्तन का साधन मन है, अत: मन को सदा जाग्रत रखो।
संक्षेप मे मन से ईश्वर चिन्तन होना चाहिये और मन का अभ्यास होना चाहिये।

इसलिए पाठ करते समय हमें मन को हनुमानजी की मूर्ति मे एकाग्र करके चिन्तन करना चाहिए, तथा सत्कर्मों को जीवन में लाने का प्रयत्न करना चाहिये उसके लिए भगवान से प्रार्थना करनी चाहिये कि:-

"हे पवनसुत आप तो बल के धाम है, मुझे भी शक्ति प्रदान कीजिए।"

क्रमशः

नोट:- प्रस्तुत लेख में शब्दों की अवधि अवश्य कुछ अधिक हो सकती है, किन्तु प्रस्तुत लेख हम सभी के लिए बहुत ही उपयोगी एवं ज्ञानवर्धक है...🙏😊

जय जय वीर बजरंग बली
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